अफगानिस्तान संकट और भारत

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प्रभुनाथ शुक्ल

अफगानिस्तान पर तालिबान जिहादियों ने कब्जा जमा लिया है। अफगान सेना ने बड़ी आसानी से काबुल को सौंपते हुए तालिबान लड़ाकों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। राष्ट्रपति अशरफ गनी अपनी जान बचाकर विदेश भाग गए। अब यह तर्क दे रहे हैं कि वह काबुल में खूनखराबा नहीं चाहते थे जिसकी वजह से उन्होंने देश छोड़ दिया। उनका कहना है कि अगर वे रहते तो काफी निर्दोष लोग मारे जाते।

उनकी बात काफी हद तक सच भी हो सकती है, लेकिन उन्होंने जिस तरह तालिबान के सामने आत्मसमर्पण किया उसकी उम्मीद नहीं थी। वह एक अकुशल, डरपोक और भगोड़ा शासक साबित हुए। अफगानिस्तान में तालिबान का तख्ता पलट पूरी दुनिया के लिए बड़ा संदेश है। यह सब इसी तरह चलता रहा तो वह वक्त दूर नहीं जब दुनिया पर इस्लामिक जिहादियों का शासन होगा। जिहाद जिंदाबाद बोल रहा है और दुनिया मौन है।

अफगानिस्तान में तालिबान अब सत्ता में आ गया है। अगर उसे दुनिया के साथ चलना है तो अपनी नीतियों में बदलाव करना होगा। अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद उसका जेहादी मकसद पूरा हो गया है। अब सरकार चलाने के लिए उसे अपने मध्ययुगीन नीतियों में परिवर्तन करना होगा। कट्टर इस्लामिक छवि से बाहर निकलना होगा। अफगानी जनता की सुरक्षा के लिए बेहतर कदम उठाने होंगे। अफगानिस्तान में अशरफ गनी की सरकार जो कुछ नहीं दे पायी उसे तालिबान को देना होगा। महिलाओं की स्वतंत्रता को लेकर पुनर्विचार करना होगा। उन्हें खुला मंच और खुली आजादी देनी होगी। कट्टर इस्लामिक कानूनों को लादने बजाय उदार नीति अपनानी होगी। अफगान नागरिकों का विश्वास जीतना होगा। पड़ोसी मुल्कों के साथ बेहतर संबंध बनाने होंगे। दुनिया के साथ अच्छा तालमेल बैठाकर शासन करना होगा। अफगानिस्तान की जनता की खुशी के लिए सबकुछ करना होगा। इसके साथ वहां जो विदेशी नागरिक, कामगार और सैनिक फंसे हैं, उनकी सुरक्षित वापसी उसकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है। दूतावासों की रक्षा उसका नैतिक धर्म है। यह सब कर वह दुनिया का भरोसा जीत सकता है।

अफगान फतह के बाद तालिबान अपनी नीतियों में बदलाव चाहता है। इसका साफ संकेत भी मिल गया है। तालिबान ने लड़ाकों को साफ निर्देश दिया है कि अफगान जनता को किसी तरह परेशान न किया जाए। बिना किसी आदेश के उनके घरों में न घुसा जाए। जीत के बाद तालिबान उदार चेहरा दिखाना चाहता है। उसे मालूम है कि वह इस्लामिक कट्टरता के बलबूते दुनिया के साथ बेहतर संबंध नहीं बना सकता। तालिबानी सत्ता की अधिकृत मान्यता के लिए उसे विश्व बिरादरी की सहमति के साथ देश चलाने के लिए आर्थिक सम्पन्नता बेहद जरूरी होगी। इस हालात में उसे वैश्विक दुनिया का साथ चाहिए।

चीन अफगानिस्तान में तालिबान शासकों से मिलकर भारी आर्थिक निवेश करना चाहेगा। पाकिस्तान के माध्यम से अफगानिस्तान को साथ लेकर चीन भारत की नकेल कसना चाहेगा। चीन तालिबान की सत्ता को मान्यता दे सकता है। चीन भारत को किनारे करने के लिए हर मौका तलाश रहा है। ऐसे में भारत सरकार को भी अपनी नीतियां बदलनी होगी। अमेरिका के इशारे पर नाचना ठीक नहीं होगा। क्योंकि अगर अफगानिस्तान में चीन मजबूत हो गया तो कूटनीतिक लिहाज से भारत के लिए अच्छा अवसर नहीं होगा। भारत ने अफगानिस्तान में अरबों डालर का निवेश किया है, जिसकी कीमत उसे चुकानी होगी।

तालिबान हमेशा से भारत का दुश्मन रहा है। वह कट्टर इस्लामिक संस्कृति का समर्थक है। जबकि सभ्य इस्लामिक मुल्क इसकी इजाजत नहीं देते, जिसकी वजह से वह दुनिया से अलग-थलग पड़ जाता है। शांति के प्रतीक भगवान बुद्ध की अनगिनत मूर्तियों को तालिबान ढहा चुका है। अफगानिस्तान में तालिबान अगर मजबूत हो गया तो चीन पाकिस्तान की मदद से भारत को अस्थिर करने का जाल बुनेगा। क्योंकि दक्षिण एशिया में चीन सिर्फ भारत से डरता है। हाल के दिनों में नेपाल से भी भारत के संबंध अच्छे नहीं रहे हैं। वहां चीन की दखलअंदाजी बढ़ी है। जिसकी वजह से यह भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

भारत को बदले हालात में अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा। भारत को यह बात समझनी होगी कि अमेरिका जैसा देश अफगानिस्तान की मदद क्यों नहीं कर पाया। कूटनीतिक रूप से अमेरिका भी जानता है कि तालिबान के शासन में अमेरिका के बजाय चीन की अधिक चलेगी। चीन और रूस की आपस में बेहद अच्छी जमती है। अफगानिस्तान में अमेरिकी दखलअंदाजी चीन और रूस को नहीं पच रही थी। बदले हालात में अफगान में चीन मजबूत होगा जो भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है। चीन अफगानिस्तान को आगे कर भारत में आतंकी साजिश रच सकता है। दूसरी तरफ अफगानिस्तान से बेहतर संबंध बनाकर वह आर्थिक निवेश करेगा और दक्षिण एशिया में अपने को कूटनीतिक, राजनीतिक एवं सामरिक रूप से मजबूत करेगा।

अफगानिस्तान में तालिबानी शासन को अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन और भारत समेत दूसरे देश मान्यता न देने की घोषणा की है। लेकिन सवाल उठता है जब तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा कर रहा था तो अशरफ गनी की निगाहें अमेरिका और दूसरे देशों पर टिकी थीं। लेकिन सभी ने चुप्पी साध रखी थी। अफगानिस्तान में अनावश्यक रूप से अमेरिकी सैनिक मारे जा रहे थे। तालिबान उन पर हमला कर रहा था। जिसकी वजह से अमेरिका में भी इसकी आलोचना हो रही थी। जिसकी वजह से उसे हटना पड़ा। सवाल है कि अगर संबंधित देश तालिबान शासन को मान्यता नहीं देना चाहते हैं, लेकिन जब तालिबान अफगानिस्तान पर कहर बरपा रहा था तो लोग चुप क्यों थे।


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

अफगान पर कब्जे के बाद तालिबान सरकार दुनिया से शांत, सौहार्द, और सद्भाव चाहती है। वह अपनी कट्टर जिहादी स्वरूप को बदलना चाहती है। दुनिया के साथ मिलकर काम करना चाहती है। महिलाओं और युवाओं को आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बनाना चाहती है। कट्टर इस्लामी क्षेत्र से बाहर निकलना चाहती है तो उस हालात में दुनिया को अफगानिस्तान के विकास के लिए सहयोग करना होगा। लेकिन अगर तालिबान अपनी इस्लामिक छवि को नहीं बदलता है तो उसके खिलाफ वैश्विक मंच की लामबंदी बेहद जरूरी है। हालांकि तालिबानी प्रवक्ता सोहैल शाहीन ने कहा है कि दुनिया के साथ वह शांति चाहता है। सौहर्दपूर्ण माहौल में बातचीत करना चाहता है। क्योंकि तालिबान को पता है कि खून खराबे की संस्कृति वह अधिक दिन सत्ता में नहीं टिक सकता है। वक्त आने पर दुनिया उसके खिलाफ खड़ी हो सकती है।

तालिबान अपनी सोच को बदलना चाहता है। अफगानिस्तान में नई उम्मीद के साथ आना चाहता है तो उसे अफगान नागरिकों की सुरक्षा को लेकर बेहद संजीदा होना पड़ेगा। वैसे तालिबान ने अपने जेहादियों से साफ कहा भी है कि अफगान नागरिकों की सुरक्षा के साथ उनकी संपत्ति और दूसरे मसलों पर खास ध्यान दिया जाए।

भारत हमेशा से लोकतंत्र का समर्थक रहा है। वह पड़ोसियों के साथ भी शांति चाहता है। बदले हालात में भारत के सामने बड़ी चुनौती है। भारत को भी एक नई कूटनीति के तहत चीन को रोकने के लिए अफगानिस्तान पर विचार करना होगा। अगर चीन की दखलअंदाजी वहां बढ़ गईं तो भारत के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। क्योंकि तालिबान भारत का पुराना दुश्मन रहा है। जबकि चीन अफगानिस्तान में तालिबान की जीत को एक नए अवसर के रूप में देख रहा है। भारत को चीन से सावधान रहना होगा। भारत के लिए तालिबान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि चालबाज चीन की नीतियां।

प्रकाशित तारीख : 2021-08-19 19:12:00

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