कर्नाटक के उडुपी जिले के एक कॉलेज से शुरू हुआ हिजाब का मुद्दे ने देशभर को गरमा दिया है। मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर है। कर्नाटक हाईकोर्ट ने छात्र-छात्राओं से कहा है कि फिलहाल वे शिक्षण-संस्थानों में धार्मिक पहचान वाली पोशाक न पहनें। इस व्यवस्था के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। याचिका में कहा गया है कि कोई सांविधानिक अदालत अपने अंतरिम आदेश से अनुच्छेद 15, 19, 21 और 25 के तहत नागरिक को प्राप्त मौलिक-अधिकारों पर रोक कैसे लगा सकती है? याचिका दायर करने वालों का कहना है कि केरल हाईकोर्ट ने माना है कि हिजाब अनिवार्य धार्मिक पहनावा है।
कर्नाटक के एजुकेशन एक्ट में यूनिफॉर्म व पेनल्टी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। उसे पहनने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। कानूनी अधिकारों के अलावा इस मामले के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक सवाल जुड़े हुए हैं। मसलन शिक्षा-संस्थानों को वेशभूषा निर्धारित करने का अधिकार है या नहीं? धार्मिक-विश्वास की कीमत पर क्या किसी को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया जा सकता है?
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक मामले को ले जाने वाली छात्राओं की संख्या ज्यादा बड़ी नहीं हैं, पर उनके पक्ष में कांग्रेस पार्टी से जुड़े नामी वकील खड़े हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास ने भी दायर की है। इससे लगता है कि कांग्रेस पार्टी यह साबित करना चाहती है कि हम मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करने में सबसे आगे हैं। पार्टी के नेताओं के बयानों के पढ़ने से भी ऐसा ही आभास होता है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार है। वहाँ कांग्रेस और जनता दल (एस) जैसे दलों का मुस्लिम-मतदाताओं पर काफी प्रभाव है। उधर दक्षिण भारत के मुस्लिम समुदाय के बीच सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) तेजी से उभर रही है। मुस्लिम छात्रों के संगठन कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) का प्रसार भी बढ़ रहा है। इससे कांग्रेस और जेडी(एस) के मुस्लिम वोटों का क्षरण हो रहा है। कांग्रेस के सामने इस आधार को बचाने की चुनौती है।
यह विवाद ऐसे वक्त में शुरू हुआ है, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। उत्तर और दक्षिण की राजनीतिक परिघटनाएं एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। पहली नजर में ध्रुवीकरण की योजनाबद्ध गतिविधि नजर आती है। सवाल है कि किसकी है यह योजना? एसडीपीआई की दिलचस्पी उत्तर प्रदेश में नहीं है। तब क्या यह बीजेपी का काम है? पर आंदोलन तो एसडीपीआई और सीएफआई ने शुरू किया है? उडुपी जिले में मुस्लिम आबादी 18 फीसदी है।
2013 के विधानसभा चुनाव में यहाँ की पाँच में से चार सीटें कांग्रेस ने और एक बीजेपी ने जीती थी। 2018 में बीजेपी ने सभी सीटों पर विजय प्राप्त की। इस दौरान कर्नाटक के तटवर्ती इलाकों में जबर्दस्त ध्रुवीकरण हुआ है। इसका लाभ भाजपा को मिला है, तो क्या मुस्लिम ध्रुवीकरण का लाभ लेने को एसडीपीआई ने प्रयास शुरू किए हैं। हाल में एसडीपीआई ने उडुपी जिले के स्थानीय निकाय चुनावों में काफी सफलता प्राप्त की है। काउप नगरपालिका, वित्तला और कोटेकर पंचायतों पर उसका कब्जा हो गया है, जो कांग्रेस के परम्परागत गढ़ थे। कांग्रेस इसे राष्ट्रीय-मुद्दा बनाकर दक्षिण में अपने कमजोर होते जनाधार को बचाने की कोशिश कर रही है। शुरू जिसने भी किया हो, लेकिन बहती गंगा में हाथ सब धोना चाहते हैं।
केवल राष्ट्रीय नहीं, यह अंतरराष्ट्रीय-मुद्दा भी बना है। अमेरिका के ऑफिस ऑफ इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम (आईआरएफ) ने बयान जारी करके कहा है कि हिजाब पर रोक धार्मिक-स्वतंत्रता का उल्लंघन है। स्त्रियों और लड़कियों को हाशिए पर डालने की कोशिश है। आईआरएफ के राजदूत रशद हुसेन भारतवंशी हैं। यह संगठन भारत को लेकर इसके पहले भी बयान जारी करता रहा है। हिजाब के मामले को पाक ने भी उठाया है। इस मामले के व्यापक निहितार्थ को सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से समझ में आता है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रामन्ना की बेंच ने कहा कि हमारी नजर पूरे मामले पर है। उचित समय पर हम इस अर्जी पर सुनवाई करेंगे। साथ ही अदालत ने सुझाव दिया कि इस मामले को ज्यादा बड़े स्तर पर न फैलाएं। आपको हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए, जहां सोमवार को फिर से सुनवाई होगी।
इच्छा का परिधान व्यावहारिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। सेना, पुलिस या बहुत से कार्यस्थलों में यूनिफॉर्म की संगठनात्मक अनिवार्यता होती है। वहाँ इच्छा नहीं चलती। इच्छा के परिधान का अधिकार संस्थान के यूनिफॉर्म तय करने के अधिकार के ऊपर नहीं होता। सांस्कृतिक और धार्मिक-वरीयताओं को ध्यान में भी रखना होता है। सिखों के साथ ऐसा है। क्या हिजाब भी अनिवार्य पहनावा है? कर्नाटक के स्कूल में सबसे पहले छह लड़कियों ने यह माँग उठाई, जबकि वहाँ काफी बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़कियाँ बगैर हिजाब के आ रही थीं। दक्षिण भारत में परदा प्रथा नहीं है। वहाँ शादी के समय लड़कियाँ सिर पर पल्ला नहीं रखतीं। सांस्कृतिक रूप से खुले कर्नाटक के समाज में हिजाब की माँग अटपटी है। इसके पीछे किसी की राजनीतिक मंशा साफ दिख रही है।
सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें लड़कियाँ बुरका पहनकर फुटबॉल खेल रही हैं। संदेश है कि हम आईएएस भी बनेंगी। इसी परिधान में। फुटबॉल के कुछ नियम हैं, जिनका पालन करना जरूरी है। बुरका पहनकर खेलना कितना मुश्किल है, यह उस वीडियो में देखा जा सकता है। फिर भी आप खेलने पर उतारू हैं, तो कोई रोक नहीं सकता। प्रतियोगिता में उतरने के लिए उसके नियम भी मानने होंगे। कहा जा सकता है कि नियम बदले भी तो जाते हैं। स्थानीय स्तर पर ही विद्यालयों को साथ मिलकर हिजाब को यूनिफॉर्म का हिस्सा बनवाना क्या सम्भव नहीं था? मुस्लिम लड़कियाँ घर से बाहर निकल नहीं पाती हैं। हिजाब के साथ उन्हें बाहर निकलने की अनुमति मिलती है और वे शिक्षा प्राप्त कर लेती हैं, तो इसमें गलत क्या है? हिजाब को भी पहनावे का हिस्सा मान लेने से क्या नुकसान हो जाएगा? बहुत से संस्थानों में स्कर्ट के साथ-साथ सलवार-कमीज की यूनिफॉर्म है, क्योंकि यह देशी-पहनावा है। सांस्कृतिक-धार्मिक वरीयताओं को स्वीकार करने में दिक्कत क्या है?
अफगानिस्तान और ईरान में बुर्के और हिजाब के खिलाफ लड़कियाँ आंदोलन कर रही हैं, वहीं भारत के प्रगतिशील लोगों का एक वर्ग हिजाब का समर्थन कर रहा है। दूसरी तरफ एक तबका मानता है कि यह कट्टरपंथ को बढ़ावा देना है। कट्टरपंथी माँगें बढ़ती जाएंगी। आज हिजाब है, कल बुरके की माँग होगी। तुर्की जैसे इस्लामिक देश में सार्वजनिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक है और उसे वहाँ की जनता का समर्थन भी प्राप्त है, पर फ्रांस और यूरोप में जब रोक लगती है, तो उसका विरोध किया जाता है? स्त्रियों के चेहरे या सिर को ढकने से जुड़े परदे यानी हिजाब, चादर, नकाब या बुर्के पर कई देशों ने रोक लगा रखी है।
पगड़ी, टोपी, बिन्दी, तिलक, माला और हिजाब धार्मिक-पहचान हैं। क्या इन्हें धर्म का अनिवार्य अंग मानें? इन्हें धारण करना क्या व्यक्ति का मौलिक अधिकार है? क्या शिक्षा-संस्थाओं को पहनावा तय करने का अधिकार नहीं है? इस दौरान मद्रास हाईकोर्ट ने हैरानी जताई कि सर्वोपरि क्या है-'राष्ट्र या धर्म?' कुछ जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते कार्यवाहक चीफ जस्िटस एमएन भंडारी और न्यायमूर्ति डी भरत चक्रवर्ती के पीठ ने कहा कि कुछ ताकतों ने 'ड्रेस कोड' को लेकर विवाद पैदा किया है और यह पूरे भारत में फैल रहा है। सुप्रीम कोर्ट में इन सवालों पर भी विचार होगा। राष्ट्रहित पर धार्मिक पहचान भारी न पड़े।