कोरोना संकट: घरेलू महिलाएं जूझ रहीं अलग मोर्चे पर, काम के बढ़ते बोझ के बीच ना हों उपेक्षा की शिकार

योगिता यादव

नई दिल्‍ली

आप घर में हैं- होम मैनेजर हैं या वर्किंग प्रोफेशनल, आने वाला समय आपके लिए और ज्यादा चुनौतीपूर्ण होने वाला है। लॉकडाउन की इस अवधि ने सिर्फ लाइफस्टाइल ही नहीं बदला, सोचने-समझने के तरीके को भी एक हल्की चोट दी है। 

कुछ साल पहले डिजास्टर पत्रिका में एक शोध प्रकाशित हुआ था। यह शोध यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो के समाज विज्ञान और आपदा प्रबंधन विभाग के साझा सहयोग से हुआ था जिसमें अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से आपदा के बाद बातचीत की गई थी।


इस बातचीत में जो खास पक्ष उभरकर सामने आया वह यह था कि किसी भी आपदा के प्रति महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा सतर्क और सक्रिय होती हैं। वे आपदा से निपटने में पुरुषों से बेहतर प्रबंधक साबित होती हैं और मजबूती से तमाम हालात का मुकाबला करते हुए परिवार और समाज को संभाले रहती हैं। 
इसी शोध में एक और दुखद पक्ष भी सामने आया कि आपदा से उबरने के बाद परिवार और समाज दोनों में ही वे उपेक्षित कर दी जाती हैं और युद्ध काल की ही तरह आपदा काल का भी सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है।
इसे राजनीति और राष्ट्रों की सीमा को लांघकर देखें तो यह हमारी सोशल कंडीशनिंग का मसला है कि महिलाएं 2020 में भी दोयम दर्जे पर हैं। समाज के मन और दुनिया के बजट में अब भी उनका हिस्सा गौण है।  

आप घर में हैं- होम मैनेजर हैं या वर्किंग प्रोफेशनल, आने वाला समय आपके लिए और ज्यादा चुनौतीपूर्ण होने वाला है। लॉकडाउन की इस अवधि ने सिर्फ लाइफस्टाइल ही नहीं बदला, सोचने-समझने के तरीके को भी एक हल्की चोट दी है। 

कुछ साल पहले डिजास्टर पत्रिका में एक शोध प्रकाशित हुआ था। यह शोध यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो के समाज विज्ञान और आपदा प्रबंधन विभाग के साझा सहयोग से हुआ था जिसमें अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से आपदा के बाद बातचीत की गई थी।

इस बातचीत में जो खास पक्ष उभरकर सामने आया वह यह था कि किसी भी आपदा के प्रति महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा सतर्क और सक्रिय होती हैं। वे आपदा से निपटने में पुरुषों से बेहतर प्रबंधक साबित होती हैं और मजबूती से तमाम हालात का मुकाबला करते हुए परिवार और समाज को संभाले रहती हैं। 


इसी शोध में एक और दुखद पक्ष भी सामने आया कि आपदा से उबरने के बाद परिवार और समाज दोनों में ही वे उपेक्षित कर दी जाती हैं और युद्ध काल की ही तरह आपदा काल का भी सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है।
इसे राजनीति और राष्ट्रों की सीमा को लांघकर देखें तो यह हमारी सोशल कंडीशनिंग का मसला है कि महिलाएं 2020 में भी दोयम दर्जे पर हैं। समाज के मन और दुनिया के बजट में अब भी उनका हिस्सा गौण है।  

कोरोना काल में आप तमाम तरह के लजीज व्यंजन बना रहीं हैं, बच्चे घर से बाहर न निकलें इसके लिए घर में ही उन्हें अलग-अलग रचनात्मक गतिविधियों में इंगेज किए हुए हैं। ऑनलाइन क्लास के लिए बच्चों से पहले लैपटॉप खोल कर बैठ जाती हैं, आप ही के साथ वे भी हैं जो आपदा काल में सिर पर गृहस्थी की गठरी उठाए राजमार्ग से होते हुए अपने गांव लौट चलीं।

आप घर में हैं- होम मैनेजर हैं या वर्किंग प्रोफेशनल, आने वाला समय आपके लिए और ज्यादा चुनौतीपूर्ण होने वाला है। लॉकडाउन की इस अवधि ने सिर्फ लाइफस्टाइल ही नहीं बदला, सोचने-समझने के तरीके को भी एक हल्की चोट दी है। 

कुछ साल पहले डिजास्टर पत्रिका में एक शोध प्रकाशित हुआ था। यह शोध यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो के समाज विज्ञान और आपदा प्रबंधन विभाग के साझा सहयोग से हुआ था जिसमें अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से आपदा के बाद बातचीत की गई थी।

इस बातचीत में जो खास पक्ष उभरकर सामने आया वह यह था कि किसी भी आपदा के प्रति महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा सतर्क और सक्रिय होती हैं। वे आपदा से निपटने में पुरुषों से बेहतर प्रबंधक साबित होती हैं और मजबूती से तमाम हालात का मुकाबला करते हुए परिवार और समाज को संभाले रहती हैं। 
इसी शोध में एक और दुखद पक्ष भी सामने आया कि आपदा से उबरने के बाद परिवार और समाज दोनों में ही वे उपेक्षित कर दी जाती हैं और युद्ध काल की ही तरह आपदा काल का भी सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है।
इसे राजनीति और राष्ट्रों की सीमा को लांघकर देखें तो यह हमारी सोशल कंडीशनिंग का मसला है कि महिलाएं 2020 में भी दोयम दर्जे पर हैं। समाज के मन और दुनिया के बजट में अब भी उनका हिस्सा गौण है।  

कोरोना काल में आप तमाम तरह के लजीज व्यंजन बना रहीं हैं, बच्चे घर से बाहर न निकलें इसके लिए घर में ही उन्हें अलग-अलग रचनात्मक गतिविधियों में इंगेज किए हुए हैं। ऑनलाइन क्लास के लिए बच्चों से पहले लैपटॉप खोल कर बैठ जाती हैं, आप ही के साथ वे भी हैं जो आपदा काल में सिर पर गृहस्थी की गठरी उठाए राजमार्ग से होते हुए अपने गांव लौट चलीं।

ये महिलाओं की भूमिका है, जो कोविड-19 के दौरान एकदम से बदल गई है। वे होम मैनेजर हैं तो भी और वर्किंग प्रोफेशनल हैं तो भी, उन्होंने कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारियों को ग्रहण कर लिया है। अपनी मानसिक बुनावट के चलते वे हर आपातकाल में परिवार की परेशानियों को अपने कंधों पर उठा लेने को तैयार हैं। पर संकट अभी टला नहीं हैं। संकट के द्वार लॉकडाउन के बाद खुलेंगे। संकट के छोटे-छोटे छीटें, सेलेरी डिडक्शन, भत्तों में कटौती के रूप में आनी शुरू हो गई हैं। वे छोटे-छोटे फुटकर कारोबार जो दो-चार लोग मिलकर चला रहे थे, लॉकडाउन में तबाह हो चुके हैं।

ऐसा नहीं है कि ये फिर से शुरू नहीं हो पाएंगे, बल्कि इन्हें शुरू होने में जितना समय लगेगा, उसका नुकसान अर्थव्यवस्था को झेलना होगा। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन इस संकट के भयावह संकेत दे रहा है।

आईएलओ की मानें तो यह सिर्फ स्वास्थ्य संकट नहीं है, बल्कि यह एक बड़े आर्थिक संकट को अपने साथ ले ही आया है। वैश्विक बाजार मंदी की चपेट में आ चुका है। जो दुनिया भर के लोगों को प्रभावित करेगा। इससे दुनिया भर में ढाई करोड़ नौकरियों पर खतरा आसन्न है। 

यह कॉरपोरेट बाजार का मौन सिद्धांत है कि जब एक पुरुष और एक महिला बराबर उम्र और योग्यता होते हुए भी नौकरी के लिए कतार में होते हैं, तो नौकरी पुरुष को दी जाती है और जब ढाई करोड़ नौकरियां जाती हैं, तो हम यह मानकर चलते हैं कि साढ़े सात करोड़ उन नौकरियों के लिए कॉम्पीटिशन कर रहे होते हैं।

इन साढ़े सात करोड़ लोगों की क्रय क्षमता शून्य हो चुकी होगी जिसका असर उन छोटे स्वरोजगारों पर भी पड़ेगा, जो अर्थव्यवस्था में एक बड़ा योगदान देते हैं। बहुत सीधी सी बात है जब तनख्वाह का 40 फीसदी कट चुका होगा तो आपकी प्राथमिकता भोजन होगी, पार्लर, सैलून या फेशनेबल कपड़े नहीं। पर यह बाजार की कड़ी है, जो क्रय क्षमता घटने के कारण प्रभावित होगी। 

आईएलओ की ही 2007 की रिपोर्ट में यह चौंकोने वाली बात सामने आई कि अब भी हमारे समाज का नजरिया ऐसा है कि पुरुष की जरूरत को परिवार की जरूरत माना जाता है जबकि महिला की जरूरत को केवल उसकी अपनी निजी जरूरत।

महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 16 फीसदी कम वेतन पर ही संतोष कर लेना पड़ता है, जबकि चुनौतियां और कंपीटिशन उनके लिए ज्यादा बढ़ जाते हैं। यही सोच रोजगार देते समय भी काम करती है। 

आर्थिक संकट के साथ ही मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर उत्पन्न हुए खतरे का शिकार भी महिलाओं को ही सबसे ज्यादा होना पड़ता है। पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन को मानसिक स्वास्थ्य के लिए आगे आना पड़ा।

विकसित देशों के साथ यह हालात विकासशील देशों के लिए ज्यादा संकट पैदा करने वाले हैं। रोटी और कटौती के फेर में महिलाओं की सुरक्षा, स्वास्थ्य और अधिकार से जुड़े मुद्दे पूरी तरह उपेक्षित रह जाते हैं।

आपदा काल के दौरान सरकारें जिस नाकामी से गुजरती हैं, उसका परिणाम थोड़े अधिक कठोर कानूनों, कठोर नियमों और अतिरंजित राष्ट्रवाद के रूप में सामने आते हैं। क्या यह कहने की जरूरत है कि जब समाज और परिवार पर इन्हें थोपा जाता है तो उसका सबसे ज्यादा भार महिलाओं को ही उठाना होता है।

प्रकाशित तारीख : 2020-12-03 20:22:00

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