कोविड-19 महामारी का सबसे ज्यादा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ा है। इसके कारण वैश्विक स्तर पर देश की सीमाओं से लेकर व्यापार तक को कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया, जिसका सीधा प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर देखने को मिल रहा है। अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। उत्पादन की कमी के कारण रोजगार सीमित हो रहे हैं और श्रम का तेजी से अवमूल्यन हो रहा है।
देश को इस संकट से उबारने के लिए लगातार इस पर चर्चा और बहस जारी है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए नए विकल्पों की तलाश की जा रही है। इस महामारी के समय में विश्वव्यापी बंदी के कारण जब आम आदमी की आर्थिक स्थिति बदतर हो चली है तो उसमें उसे कुछ राहत मिल सके, इस पर लगातार विचार किया जा रहा है। अर्थव्यवस्था और जीडीपी की वृद्धि में रोजगार और श्रम का विशेष महत्व होता है। किंतु रोजगार की कमी और श्रम के अवमूल्यन के कारण जीडीपी पर लगातार नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। लेकिन यह हमारे चर्चा का विषय नहीं है।
उत्पादन और अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसके पीछे बहुत से अदृश्य श्रम होते हैं। जिनके होने या न होने से जीडीपी के घटने व बढ़ने का पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। क्योंकि हमारी आर्थिक व्यवस्था में इस अदृश्य श्रम का कोई मूल्य निर्धारित नहीं है। जिस श्रम का मूल्य नहीं होगा वह अर्थव्यवस्था को कैसे चला सकती है? जीडीपी में उसकी भूमिका क्या हो सकती है? उत्पादन व विकास के इस अर्थतंत्र में यह अदृश्य श्रम हमेशा उपेक्षित ही रहा है।
हमारे देश में घरेलू महिलाओं के श्रम को इसी अदृश्य श्रम के अंतर्गत रखा गया जिसका न कोई मूल्य है न कोई मोल। जिसका न ही अर्थव्यवस्था में कोई योगदान है न ही जीडीपी में। जिसके कारण उसका श्रम सदैव उपेक्षित रहा और उनके काम को ‘कुछ नहीं’ के रूप में पहचाना जाता है। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि श्रम का महत्व उसके मूल्य से अधिक व्यक्ति की पहचान से जुड़ा है। श्रम के महत्व व मूल्य के आधार पर ही व्यक्ति की सामाजिक व पारिवारिक पहचान निर्मित होती है।
कोविड-19 महामारी के समय में सबसे अधिक दोहन अगर किसी का हुआ है तो वह यही अदृश्य श्रम है। उसमें भी कामकाजी घरेलू महिलाओं की स्थिति ओर भी चिंतनीय व दयनीय है। वे श्रम की दोहरी मार से जूझ रही हैं। ऐसा नहीं है कि कोविड 19 महामारी से पूर्व वे इन स्थितियों से नहीं जूझ रही थी। किंतु उस समय घरेलू सहायिका उनके श्रम का कुछ हिस्सा बांट लेती थी। लेकिन महामारी के बाद जहां हर कोई स्वयं को सुरक्षित करना चाहता है तो यह सहयोग भी कामकाजी महिलाओं से छीन गया।