ये कैसी घडी है ये कैसा असर है
सदमे में है लोग वीरांन शहर है
फिजा में भरी ये कैसा जहर है
खौफ से सिमटा हुआ सारा दहर है
जोशो न जुनुं है मायुश दिलों मे धसा डरका खंजर है
जिंदगी बेजान सी है हर तरफ बस मौतका मंजर है
मौत भि ऐसी न जनाजा निकले
न मय्यत पे कोइ अश्क बहाए
आग में जले या दफन हो जमीन पे
कोइ अजिज भी लाशकी इक झलक देख न पाए
ये कैसा इबलिस है इसे न आब गला सके
सूरज की तपिश भि इसे न जला सके
सासों से आए सासें ले जाए
मर्ज की ये कैसी लहर है
सन्नाटा है सर्द काली रात सी
जैसे वक्त गया ठहर है
कहीं कयामतका पैगाम तो नही ये बला
कहीं आनेबाला तो नही बर्बादीका जलजला
गुरुर में था इंसान मै मालिक मेरा ये सारा जाहान
टुट रही अब अकड फिक्रमन्द है की मिट न जाये नामो निशान
ऐश की चाह में इंन्सान वफा छोड जफा कर रहा है
जुल्म और नाइन्साफी से तीजोरी भर रहा है
जिसे वो खुसी समझे वो तो है महज इक तसव्वुर
रेगिस्ताँ मे जैसे झलक पानी की पर नही होती दुर दुर
जो ये समझ रहा सुखका दरिया
वो तो वस इक इशरत–ए–कतरा है
भ्रमका इस तिलश्मी मकडजाल मे
उलझ कर जिन्दगी बर्बाद होने का खतरा है
ऐ आदमी अब तो बे–इम्तियाज न बन
जमीर की सुन बदल अपनी सीरत व फितरत
जो नाउम्मीद हैं, भुख और किल्लत मे है उन्हे
हिम्मत दे उनकी कर खिदमत
कौन जाने किस पल होना पडे
इस जहां से रुख्सत
देर न कर पनाह में जा कर उसकी इबादत
मैं मेरा मे बन्दिश तोड दिवाना हो जा उसकी होगी इनायत
बे खुदी में, गमजादा में मौत बुरी
हंस कें कर इन्तजार न जाने कब आजाए कजा
मेहबुबा की तरह तूझे आगोश ले जाएगी जब
रोक न सकेगी उसे कोइ बन्दिगी न इल्तिजा
जिन्दगी की राह समझ चल रहें है लोग जिसमें
वो तो है मगर मौत की डगर
हयात और वफात जुदा लगे
पर वे तो है हम–साया और हम–सफर !