गौरैया का संरक्षण हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इंसान की भोगवादी संस्कृति ने हमें प्रकृति और उसके सहचर्य से दूर कर दिया है। विज्ञान और विकास हमारे लिए वरदान साबित हुआ है लेकिन इसका दूसरा पहलू हमारे लिए कठिन चुनौती भी बना है। प्रकृति और मानव के करीब रहनेवाले पशु-पक्षियों की कई प्रजाति विलुप्त हो गई हैं।
गौरैया की घटती आबादी के पीछे मानव और विज्ञान का विकास सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। ग्रामीण और शहरी इलाकों में बाग-बगीचे खत्म हो रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण जंगलों का सफाया हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में पेड़ काटे जा रहे हैं। इसका सीधा असर इन पर दिख रहा है। गौरैया के अलावा इसका असर दूसरे पक्षी और जंगली जानवरों पर भी देखा जा सकता है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि जंगली जानवर अब मानव बस्तियों तक पहुंचने लगे हैं।
गांवों में कच्चे मकानों की जगह अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं। ऐसे मकानों में गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल रही है। कच्चे मकान गौरैया के लिए प्राकृतिक वातावरण और तापमान के लिहाज से अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराते थे लेकिन आधुनिक मकानों में यह सुविधा अब उपलब्ध नहीं होती है। गौरैया अधिक तापमान में नहीं रह सकती। शहरों में भी अब आधुनिक सोच के चलते जहां पार्कों पर संकट खड़ा हो गया है। वहीं गगन चुंबी ऊंची इमारतें इस पक्षी की समस्याओं को और अधिक बढ़ा दिया है। संचार क्रांति इनके लिए अभिशाप बन गई।
शहर से लेकर गांवों तक आकाश छूने को उद्यत मोबाइल टावरों से निकलते रेडिएशन से इनकी जिंदगी संकट में है। देश में बढ़ते औद्योगिक विकास ने बड़ा सवाल खड़ा किया है। कारखानों से निकले जहरीले धुएं से इनकी जिंदगी खतरे में पड़ गई है। उद्योगों की स्थापना और पर्यावरण की रक्षा को लेकर संसद से सड़क तक चिंता जाहिर की जाती है लेकिन जमीनी स्तर पर यह दिखता नहीं है। कार्बन उगलते वाहनों को प्रदूषण मुक्त का प्रमाण पत्र चस्पां कर दिया जाता है लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है।