नामवर जी का जाना हमारे लिए एक ऐसी क्षति है जो हमें जीवन भर बेधती/कचोटती रहेगी! इसलिए नहीं कि वे प्रकांड विद्वान अथवा आलोचक थे। इसलिए कि वे हमारे समय के एक ऐसे अप्रतिम योद्धा थे जो साहित्य के तमाम स्थापित तथाकथित हिमालयी गढ़ ढाहने में जीवनपर्यंत तो लगे ही रहे, साहित्य के नये प्रतिमान और सौंदर्य गढ़ने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।
उम्र के आखिरी पड़ाव में प्रवेश कर चुकने के बावजूद नामवर जी हिन्दी जगत में जिस भूमिका का निरंतर निर्वाह करते रहे, उसे देखते हुए बरबस महापंडित राहुल सांकृत्यायन की याद आ जाती है। कहा जाता है कि पिछली पीढ़ी के अनेक महत्वपूर्ण वामपंथी नेता और सैकड़ों-हज़ारों कार्यकर्ता राहुल जी की पुस्तिकाओं को ही पढ़कर सक्रिय राजनीति में कूदे थे।
राहुल जी ने अनेक छोटी पुस्तिकाएं लिखकर संपूर्ण हिन्दी जगत में अनगिनत वामपंथी कार्यकर्ताओं की एक मजबूत कतार खड़ी करने का ऐतिहासिक कार्य किया था। यह अलग बात है कि वे पुस्तिकाएं राहुल-साहित्य के विपुल भंडार की स्थायी धरोहर बनने के काबिल नहीं मानी गईं। लेकिन, अपने समय में उन्हें जो परिवर्तनकारी भूमिका निभानी थी, उसमें उनकी ओर से रत्ती भर की कमी नहीं रही।
ठीक यही काम, हमारे समय में नामवर जी कर रहे थे। फर्क यही है कि राहुल जी ने इस काम को सम्पन्न किया था ढेरों पुस्तक/पुस्तिकाएं लिखकर अर्थात मुद्रित साहित्य के ज़रिये। नामवर जी ने दूसरा ही रास्ता चुना। उन्होंने इसके लिए प्रायः वाचिक परम्परा का सहारा लिया अर्थात घूम-घूम कर व्याख्यान देना। उनके सम्मोहक व्याख्यानों ने संपूर्ण हिन्दी जगत में युगांतकारी काम किया है।
यह शोध का विषय हो सकता है कि नामवर जी के व्याख्यानों ने कितने लेखक पैदा किए या उनके लेखन को एक खास तरह की वैचारिकता से लैस करने का कितना बडा काम किया? लेकिन प्रबुद्ध पाठकों की या कहें साहित्य के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की एक लंबी कतार खड़ी करने में नामवर जी के व्याख्यानों के अवदान पर कोई प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं किया जा सकता।
कार्यकर्ता शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं कि उनके व्याख्यान सुनने की ललक सिर्फ साहित्यिक प्राणियों में ही नहीं देखी गई, बल्कि एक बहुत बड़ी संख्या सामान्य पाठकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी रही है। और, यह उनके व्याख्यानों का जादुई प्रभाव ही रहा कि आज अनेक साहित्यकारों को राजनीतिक और सामाजिक हलचलों में भी गहरी रुचि लेते देखा जा सकता है। तो दूसरी ओर, अनगिनत सामाजिक कार्यकर्ता उनके व्याख्यानों से प्रभावित होकर साहित्य के प्रबुद्ध पाठक के रूप में उभरते पाये गयें।
मैंने देखा है पटना में नामवर जी के प्रेमचंद-केंद्रित एक लंबे व्याख्यान से अभिभूत होकर एक अति व्यस्त और वामपंथी चिकित्सक को नामवर जी के साहित्यिक व्यक्तित्व और प्रेमचंद-साहित्य का दिवाना बनते। ठीक उसी तरह पटना में ही सम्पन्न एक आयोजन में कम्युनिस्ट घोषणापत्र पर उनके व्याख्यान को सुनने के बाद अपने अनेक समकालीन साहित्यिक मित्रों को घोषणापत्र की प्रति प्राप्त करने की कोशिश में पागलों की तरह दुकान-दुकान दौड़ते हुए देखा है।
गैर साहित्यकारों को साहित्य का दिवाना बनाने और साहित्यकारों को राजनीतिक हलचलों/साहित्य के पीछे दौड़ाने की कला का, आज के दौर का यदि सबसे बड़ा उस्ताद कोई रहा है तो वह निश्चय ही नामवर जी थे।
कहना न होगा कि उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद की इस सार्वकालिक उक्ति “साहित्य राजनीति के आगे जलने वाली मसाल है ” को भी आज की विचारहीनता के सबसे खतरनाक दौर में मशाल की तरह जलाये रखने में सबसे प्रबल योद्धा की तरह नामवर जी ही संघर्षरत दिखते थे।
नामवर जी अपने व्याख्यानों में यह चमत्कार कैसे पैदा कर लेते थे, इसका सटीक जवाब भी हम नामवर जी के वक्तव्यों से ही पा सकते हैं। मुझे याद है एक गोष्ठी में नामवर जी की उपस्थिति में एक युवा और क्रातिकारी लेखक धुंआधार बोले जा रहे थे।
उन्होंने अपरोक्ष रूप से साहित्य-लेखन के प्रति नामवर जी की लापरवाह प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए टिप्पणी की कि गहराई में डुबकी लगाए बिना अनमोल रत्न हासिल नहीं किया जा सकता।
अपनी बारी आने पर नामवर जी उठे और बोले - सही कहा। गहराई में डुबकी लगाये बिना अनमोल रत्न हासिल नहीं किया जा सकता। लेकिन डुबकी लगाने में खतरा भी है और आदमी अनमोल रत्न प्राप्त करने की बजाय भारी आफत मोल लेता है।
फिर उन्होंने बनारस की एक घटना सुनाई। वे और त्रिलोचन शास्त्री नदी नहाने गए। नामवर जी किनारे-किनारे ही पानी छपछपाते रहे। त्रिलोचन जी ठहरे तैराक। उन्होंने नामवर जी को ललकारते हुए डुबकी लगाने का आमंत्रण दिया। नामवर जी विनम्र भाव से उनके आमंत्रण को टाल गए और कहा - आप ही डुबकी लगाएं।
त्रिलोचन जी ने कहा - देखो, मैं कैसे एक लंबी डुबकी लगाता हूं। फिर तो त्रिलोचन जी ने जो डुबकी लगाई, बड़ी देर तक पानी में ही रह गए। नामवर जी सांस रोके उनके ऊपर आने का इंतज़ार करते रहे। जब ऊपर आए तो नामवर जी ने देखा कि त्रिलोचन जी के गले में मिट्टी की किसी टूटी हांडी का मुंह फंसा हुआ और चेहरे पर जगह-जगह खरोंच भी थीं।
देखने में, यह घटना हास्य की एक मनोरम सृष्टि लग सकती है लेकिन इसी में वह रहस्य बीज भी छिपा हुआ है जो नामवर जी द्वारा पैदा किए गए चमत्कार को अनावृत करता है। राहुल या नामवर संपूर्ण हिन्दी जगत में इतनी बड़ी संख्या में राजनीतिक और साहित्यिक दोनों ही तरह के कार्यकर्ताओं के निर्माण को कैसे संभव बना लेते हैं?
वह इस तरह कि वे अपने पाठकों या श्रोताओं के लिए विचारों का कोई जटिल संजाल नहीं बुनते या अपने पांडित्य की किसी अगम गहराई का निर्माण नहीं करते, जिससे पाठकों या श्रोताओं को सिहरन या आतंक का अनुभव हो।
वे ज्ञान का एक ऐसा सहज ‘गलीचा’ बिछाते हैं जिसपर चढ़कर पाठक या श्रोता अनायास ही विचारों के रहस्य/रोमांच का भेद पा लेता है - गहराई में डुबकी लगाने का खतरा मोले बगैर। यह इतना सहज भी नहीं है। अपने पाठकों या श्रोताओं के लिए यह काम वही कर सकता है जो साहित्य और समाज की सबसे अग्रणी विचारधारा की अगम गहराई के तल तक को खंगाल चुका हो। नामवर जी इस अर्थ में निश्चय ही अपनी सिद्धि स्थापित कर चुके थे।