बच्चों की एक बड़ी पुरानी और लोकप्रिय पत्रिका नंदन तथा बड़ों की कादंबनी बंद हो गयीं। इसके बहुत पहले इनसे भी अधिक लोकप्रिय और अत्यधिक बिक्री वाली हिंदी की ढेरों पत्र-पत्रिकाएं बंद हुई हैं।
मुझे नहीं लगता कि हिंदी की जिन लोकप्रिय पत्रिकाओं को बंद किया गया है, वे न बिकने या आर्थिक नुकसान के चलते बंद हुई हैं। वे सभी प्राय: किसी न किसी बड़े व्यावसायिक घरानों से निकलने वाली पत्रिकाएं हैं। न उन्हें विज्ञापनों की कमी और न पाठकों की कमी रही हैं। थोड़ी बहुत बिक्री कम भी हुई तो क्या यह उन घरानों की विशाल आर्थिक साम्राज्य के आगे कोई माने रखती है!
दरअसल, साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के बाद बड़े पूंजीवादी/औद्योगिक घरानों को चाहे वे किसी भी देश के रहे हों, अपनी राष्ट्रीय संस्कृति, साहित्य और भाषा से कोई खास मतलब रह नहीं गया है। वे अब अंग्रेजी भाषा की तहत बन रहे इकहरा वैश्विक सांस्कृतिक साम्राज्य का अंग बनने में ज्यादा गौरवान्वित हो रहे हैं। यही कारण है कि जिन भारतीय पूंजीपति घरानों ने स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की तहत हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं को बड़े पैमाने पर संरक्षित-संवर्धित किया था, अब उन घरानों को संभालने वाली वैश्विक पूंजी और वैश्विक संस्कृति की आज की दलाल पीढ़ी इस पचड़े से साफ अपने पिंड छुड़ाने में तेजी से लग गयी हैं। एक कारण यह भी है कि अपनी लाख सीमाओं के बावजूद इन पत्र-पत्रिकाओं ने हिंदी में एक ऐसे व्यापक पाठक वर्ग तैयार तो किये ही थीं जो प्रकृति, पर्यावरण और मूल निवासियों के ध्वंस की वैश्विक पूंजी की राक्षसी प्रवृत्ति के विरुद्ध अक्सर आवाज उठाने का काम करते हैं।
मेरे ख्याल से, हिंदी की बड़ी और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं के बंद होने के कारणों को मोटे तौर पर इस संदर्भ में भी देखने की जरूरत है न कि इसका दोष इन्हें खरीद कर घर न ले आने वाले पाठकों के मत्थे मढ़ कर। दिनमान और धर्मयुग जब बंद हुए, कहा जाता है कि तब भी उनकी बिक्री कुछ लोकप्रिय अंग्रेजी पत्रिका से कम न थी।