उत्तर पूर्वी दिल्ली का मौजपुर चौक इलाका पहले की ही तरह सामान्य होकर अपनी धुन में चल रहा है. सड़कें हर समय गाड़ियों से भरी रहती हैं, चारों तरफ हॉर्न का शोर सुनाई देता है और बजबजाते लंबे नाले से लगातार दुर्गंध आती रहती है. ज्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश से आए लोग यहां की संकरी गलियों में किसी तरह अपने जीवन की गाड़ी खींच रहे हैं.
ऊपर से देखकर ऐसा नहीं लगता है कि एक साल पहले यहां हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे हुए थे, लेकिन इससे पीड़ित हुए लोगों के घाव अब भी हरे हैं.
इनकी दास्तां सरकारी दावों को उसी तरह आईना दिखाते हैं, जिस तरह मौजपुर का मेट्रो स्टेशन है, जो ऊपर से खूब चमचमाता रहता है, लेकिन जिस पिलर पर ये खड़ा है उसकी नींव यहां के एक नाले में है.
मेट्रो से करीब 200 मीटर की दूरी पर सुबह 10 बजे मोहम्मद रफी अपनी पुराने कपड़ों की दुकान खोलते हैं, लेकिन उनमें कोई उत्साह नहीं है और वे थके-हारे से लगते हैं. उनके माथे पर शिकन और डबडबाई आंखों से उनकी तकलीफों का अंदाजा लगाया जा सकता है.