बुधवार को अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में राम मंदिर के लिए हुए भूमि पूजन के विशुद्ध राजनीतिक कार्यक्रम को देश के भावी इतिहास में जैसे भी याद किया जाए, अयोध्या में मोटे तौर पर दो बातों के लिए याद किया जाएगा.
पहली- इस दिन वहां राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के ‘भव्य’ भूमि पूजन व कार्यारंभ समारोह में सत्ताधीशों व धर्माधीशों की जुगलबंदी देखते ही बनती थी.
भगवान राम की अयोध्या ने इससे पहले इन दोनों की ऐसी जुगलबंदी कभी नहीं देखी. 22-23 दिसंबर, 1949 को भी नहीं, जब विवादित ढांचे में अचानक रामलला ‘प्रकट’ हो गए थे.
तब यूपी की गोविंद वल्लभ पंत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार भले ही रामलला को प्रकट करने वालों के साथ कदमताल कर रही थी, केंद्र की पं. जवाहरलाल नेहरू सरकार को ऐसा करना गवारा नहीं था.
छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के वक्त भी सारे आरोपों के बावजूद केंद्र की पीवी नरसिम्हा राव सरकार उत्तर प्रदेश की भाजपा की कल्याण सरकार या हिंदुत्व के तत्कालीन पैरोकारों के साथ खुल्लमखुल्ला नहीं ही ‘मिली’ थी.
लेकिन इस बार पांच अगस्त को केंद्र व उत्तर प्रदेश दोनों की भाजपा सरकारों ने ‘नया इतिहास’ रचने की हड़बड़ी में हिंदू धर्माधीशों के सामने दंडवत होने में कोई सीमा नहीं मानी.
और दूसरी- भले ही प्रायः सारे विपक्षी दलों ने इस जुगलबंदी को देखकर भी नहीं देखा, अपने राजनीतिक हितों के मद्देनजर उसके मुकाबले उतरने के बजाय वॉकओवर दे दिया.
मीडिया भी 1992 के मुकाबले ज्यादा अनदेखी व अनसुनी पर आमादा था, अयोध्या के आम लोगों को अपने मुंह सिले रखना गवारा नहीं हुआ.
उन्हें जहां भी मौका मिला, उन्होंने इससे जुड़े अपने दर्द बयान किए. अलबत्ता, अल्पसंख्यक इनमें शामिल नहीं थे.