प्रशंसा एक रोग है, करने वाला भी रोगी, करवाने वाला भी रोगी। दुर्योग से यह रोग हर दौर में सत्ता- प्रतिषठान के केंद्र में रहा है। पहले राजदरबारों में दरबारी लोग होते थे, कवि होते थे जो राजा की प्रशंसा में गीत रचते थे, गाते थे, राजा खुश होता था और ऐसे लोगों को अशर्फियों और धन-दौलत से नवाजता था।
राजसत्ता बदल गई, लोकशाही का समय आया लेकिन न तो सत्ता का मूल चरित्र बदला और न ही खुशामद के रास्ते लाभ उठाने वाले लोगों का। अपनी सुविधा के लिए आप मौका और दस्तूर के हिसाब से 'प्रशंसा' शब्द को 'चापलूसी' से रिप्लेस कर सकते हैं। आलोचनात्मक टिप्पणी करना तो जैसे दु्श्मनी को दावत देना हो गया है।
अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा उपहार है। यह आजादी हमें जिम्मेदार लोगों से प्रश्न करने का हक देती है। स्वस्थ लोकतंत्र में 'सवाल' और 'आलोचना' एक औषधि की तरह है। इससे सरकार और जिम्मेदार लोगों पर अंकुश रहता है। स्वस्थ आलोचना उन्हें सतर्क और सावधान रहना सिखाती है। लेकिन इन सभी का अगर दुरुपयोग होने लगे तो चीजें बद से बदतर भी होने लगती हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने अपने एक लेख 'जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान' में समझाते हुए लिखा कि- अगर दया, करुणा, प्रशंसा और भक्ति का दुरुपयोग किया जाने लगे, तो वह दुर्गुण हो जायेंगे। अंधी दया अपने पात्र को पुरुषार्थ-हीन बना देती है, अंधी करुणा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भक्ति धूर्त। इसी निबंध में प्रेमचंद यह भी समझाते हैं कि- निंदा, क्रोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिए, तो संसार नरक हो जायेगा।
यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है। यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है। निंदा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय।
कहते हैं प्रशंसा के घाव बड़े गहरे होते हैं, लेकिन यह लोग कहते भर हैं, अब इसका कोई मतलब नहीं रह गया है आजकल। पूरे कुएं में भांग पड़ी है, 'आत्ममुग्धता' इस दौर की सबसे बड़ी पूंजी है। प्रशंसा अब घाव नहीं करती, आपके सोचने के तरीके को बदल देती है। दिमाग में 'स्टीरियो टाइप' का निर्माण करती है। प्रशंसा, आलोचना, सवाल और टिप्पणी के संदर्भ में जो भूमिका मैं बना रहा हूं, उसके केंद्र में आज का मीडिया है।