२१वीं सदी की शुरुआत होते-होते नेपाल में २४० साल पुरानी राजशाही की विदाई हो चुकी थी। नेपाल के आखिरी राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह से राजगद्दी छिन गई थी। नेपाल अब हिंदू राष्ट्र नहीं, बल्कि एक संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र बन चुका था और अब उसी के अनुरूप था उसका संविधान। संविधान निर्माण में शामिल देश के तीनों प्रमुख दलों में से नेपाली कांग्रेस के अलावा दो नेकपा एमाले और एनेकपा माओवादी पार्टी कट्टर साम्यवादी थे। सो, संविधान पर उनकी छाप गहरी ही रही। दरअसल, नेपाल में जिस रफ्तार से राजशाही का पतन हुआ, उसी रफ्तार से साम्यवाद का उदय भी हुआ था। इसी साम्यवादी उदय से उदित हुए माओवादी नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’।
२००२ में नेपाल एक निर्णायक दौर से गुजर रहा था। राजा बीर बिक्रम शाह राजघराने का नरसंहार हो चुका था और राजगद्दी पर कम लोकप्रिय राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह विराजमान थे। राजा और संसदीय ताकतों के बीच सत्ता की नए सिरे से खींचतान जारी थी। उसमें पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ के नेतृत्व वाला माओवादियों का हिंसक आंदोलन सत्ता को चुनौती दे रहा था, सो अलग से।
नेपाली सेना ने माओवादियों के खिलाफ निर्णायक अभियान छेड़ रखा था, पर न तो सेना के लिए उस आंदोलन का समूल नाश संभव था, न ही माओवादियों के लिए सेना को मात देना। तब रास्ता समझौते का चुना गया। तकरीबन एक दशक तक प्रचंड के नेतृत्व में चले माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष पर अंतत २००६ में विराम लगा और तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने शांति प्रक्रिया वाली पटकथा लिख दी। नतीजे में नेपाल को मिला मार्क्सवाद, लेनिनवाद एवं माओवाद के मिले-जुले स्वरूप को नेपाल की परिस्थितियों में व्याख्यित करनेवाला नया प्रचंडवाद। वही प्रचंडवाद कालांतर में चीन के लिए ‘प्रचंड’ प्रेम का तो हिंदुस्थान के लिए ‘प्रचंड’ मुसीबत वाला साबित हुआ।
एक दशक के माओवादी आंदोलन के दौरान नेपाल में भयंकर बर्बादी हो चुकी थी। हिंसक संघर्ष में बच्चे-महिला और बुजुर्गों तक का इस्तेमाल किया गया था। हजारों इमारतें तबाह हो चुकी थीं, सरकारी खजाने व निजी संपत्तियां लूट ली गर्इं थीं। सैनिकों से लेकर आम नागरिकों तक करीब १७ हजार हत्याएं कर दी गई थीं। अलबत्ता, इसी हिंसा और विध्वंस को ‘प्रचंड पथ’ का नाम दिया गया था। इस तर्क के साथ कि उस दौरान हुई मौतों में से मात्र ५ हजार के लिए ही ‘प्रचंड’ जिम्मेदार थे। शेष १२ हजार मौतों के लिए पूर्व के नेपाली राजा ही दोषी थे।
प्रचंड पथ की ओर…
२००६ तक संसद ने खुद को सार्वभौमिक सत्ता घोषित करते हुए राजा की शक्तियां सीमित कर दीं थीं और २००७ में लागू अंतरिम संविधान में धर्मनिरपेक्षता को मूलभूत सिद्धांत के तौर पर स्वीकार कर लिया था। २००८ आते-आते चुनी गई संविधान सभा ने राजशाही को भी समूल समाप्त कर दिया। इस बीच नेपाल के राजा ज्ञानेंद्र द्वारा संसद की बहाली के बाद सत्ता के सूत्र अंतरिम प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला के हाथ में आ गए। सरकार के लिए अब राजशाही नहीं, बल्कि माओवादी संघर्ष बड़ी समस्या थी।
प्रधानमंत्री कोइराला ने उसे अपनी प्राथमिकता में शामिल किया और माओवादियों व संसदीय ताकतों के बीच समझौता कराने में अहम भूमिका निभाई, ताकि वे हिंसा छोड़ राजनीति की मुख्यधारा से जुड़ सकें। परंतु शायद कोइराला नहीं जानते थे कि २००६ के उस शांति समझौते की बदौलत माओवादी राजनीति की मुख्य धारा में तो होंगे पर उसका सबसे बड़ा खामियाजा देश और काफी हद तक उनकी ही पार्टी को भुगतना पड़ेगा। एक वक्त ऐसा भी आएगा जब उनकी नेपाली कांग्रेस को खुद के राजनैतिक वजूद के लिए मजबूरन उनसे राजनीतिक समझौता भी करना पड़ेगा, उन्हें सत्ता में हिस्सेदार भी बनाना पड़ेगा और उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकारना भी करना पड़ेगा।
संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित होने के बाद नेपाल में पहले प्रधानमंत्री बनने का अवसर किसी को मिला था तो वो पुष्प कमल दहल प्रचंड को। यहीं से नेपाल की संवैधानिक राजनीति में किसी माओवादी कम्युनिस्ट नेता की सफल एंट्री हुई और फिर उन्होंने देश में पहली माओवादी नीत सरकार का नेतृत्व भी किया।