प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के सत्ता में छह वर्षों को कांग्रेस महात्मा गांधी, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री और नरसिम्हा राव से लेकर प्रणब मुखर्जी तक के अपने प्रतीकों और दिग्गजों को हड़पे जाने के प्रयासों से जोड़कर देखती है. हालांकि इसमें कितनी भूमिका खुद कांग्रेस द्वारा नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के नेताओं को बढ़ावा देने से इनकार की है, ये एक अलग कहानी है. ऐसे समय जबकि भारत के आर्थिक विकास की कहानी पर कोरोनावायरस का साया पड़ने का खतरा है, मोदी शायद कांग्रेस की एक और शख्सियत, मनमोहन सिंह को अपनाना चाहें.
प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उनके सहयोगी भारत की तमाम मौजूदा समस्याओं के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन मोदी एक बार के लिए राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के नेहरू मॉडल की एक विशेषता को अपनाने की सोच सकते हैं.
नेहरू के प्रथम मंत्रिमंडल में उनके तीन राजनीतिक विरोधी शामिल थे— वित्त मंत्री आरके षणमुखम शेट्टी, उद्योग मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी और कानून मंत्री बीआर आंबेडकर. इसके पीछे वृहद राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए राजनीतिक मतभेदों को अलग रखने का विचार था. क्या मोदी में भी राष्ट्र को राजनीति से ऊपर रखने का ऐसा संदेश देने का माद्दा है?
रविवार को पीएम मोदी की मन की बात में सारे परिचित तत्व थे— मनोबल बढ़ाने वाली प्रेरणा और आशा भरी कहानियां, अपनी सरकार की उपलब्धियों की सूची, जनता को राजनीतिक नेतृत्व की सफलताओं और असफलताओं का संरक्षक बनाकर सहभागिता वाले शासन का आह्वान और व्यक्तिगत तकलीफों को (वर्तमान में प्रवासी श्रमिकों की) बड़े राष्ट्रीय हितों के लिए दिया गया बलिदान करार देने की कोशिश.
यदि कोई ये सोचकर कार्यक्रम सुनने बैठा हो कि मोदी आसन्न आर्थिक संकट की गंभीरता और उससे निपटने की अपनी योजना की चर्चा करेंगे, तो उसे आत्मनिर्भरता के दार्शनिक नारे के अलावा कुछ नहीं मिला होगा, वो भी दरअसल 2014 के मेक इन इंडिया के नारे का 2020 संस्करण है.