बदलते वक्त के साथ समाज भी करवटें ले रहा है। हर क्षेत्र में बदलाव हो रहा है। बदलाव से पत्रकारिता का क्षेत्र भी अछूता नहीं है। यकीनन, मीडिया में पहले की तुलना में अब महिलाओं के लिए ज्यादा अवसर हैं। लेकिन जो चीज बदलती नहीं दिख रही वह है मीडिया हाउस की पुरुषवादी सोच। लिहाजा जगह बनाने का महिला पत्रकारों का संघर्ष भी लंबा होता है।
मैं बिहार के दरभंगा में पली-बढ़ी। यहीं से 2011 में बारहवीं की परीक्षा पास की। इसी दौरान टीवी स्क्रीन पर महिला पत्रकारों को बड़े-बड़े मुद्दों पर बेबाकी से पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी बात रखते देख मैंने भी इस क्षेत्र में अपना करियर बनाने की सोची।
राष्ट्र और समाज के प्रति जिम्मेदारी के बोध से भी मेरा इस पेशे की तरफ झुकाव हुआ। आज भी मेरा पक्का यकीन है कि पत्रकारिता तभी तक जीवित है जब तक उसमें अंश मात्र भी ‘देशहित’ मौजूद है। यह भाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन बाजार के बोझ तले दब जरूर गया है।
मेरे लिए अपने करियर के रूप में पत्रकारिता का चुनाव करना और फिर उस मार्ग पर चलना इतना आसान नहीं था। मेरे सामने कई चुनौतियाँ थीं। मैं बिहार के एक छोटे से शहर दरभंगा की रहने वाली हूँ और मैंने अपनी बारहवीं तक की पढ़ाई वहीं से किया। उन दिनों विद्याथियों को क्या करना है, कौन से क्षेत्र में करियर बनाना है, ये सब पहले से ही तय होता था। पहली से दसवीं तक स्कूल में और फिर 11-12वीं कॉलेज में। अगर बच्चे ने साइंस लिया है, तो फिर बारहवीं पास करने के बाद इंजीनियरिंग या मेडिकल करना है। यह सब पहले से ही तय होता है।