कोरोना वायरस से संबंधित खबरों को नियंत्रित करने को लेकर सरकार का आग्रह चिंताजनक है। लॉकडाउन से प्रभावित मजदूरों-कामगारों के संबंध में केंद्र सरकार ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दायर कीं। अपनी स्टेटस रिपोर्ट में उसने लॉकडाउन की घोषणा के बाद मजदूरों में फैली घबराहट के लिए कई सामाजिक-आर्थिक कारणों को जिम्मेदार ठहराया है। लेकिन उसका मानना है कि पारंपरिक मीडिया, सोशल मीडिया और अन्य सूचना माध्यमों से दी गई गलत सूचनाओं के कारण हालात ज्यादा बिगड़े। इसलिए उसने कोर्ट से यह निर्देश देने की मांग की कि कोरोना वायरस से संबंधित किसी भी खबर को प्रसारित करने से पहले सरकारी तंत्र से उसकी पुष्टि करा ली जाए।
गनीमत है कि कोर्ट ने सरकार की इस बात को नहीं माना और 24 घंटे के भीतर उसे एक ऐसा पोर्टल बनाने को कहा, जिससे लोगों को बीमारी से जुड़ी सारी सूचनाएं और जानकारियां मिल सकें। शहरों से समाज के कमजोर वर्ग के पलायन को लेकर सरकार की चिंता वाजिब है। उसकी यह आशंका भी निराधार नहीं है कि सोशल मीडिया पर आई फर्जी खबरों और अफवाहों ने मजदूरों में घबराहट पैदा की, जिससे वे दिल्ली तथा अन्य शहरों से पैदल ही अपने गांव के लिए निकल पड़े। लेकिन इस गड़बड़झाले को रोकने का यही तरीका अगर सरकार की समझ में आता है कि वह खबरें लेने-देने का काम अपने हाथ में ले ले, तो उसे अपनी इस समझ पर पुनर्विचार करना चाहिए। संकट के दौर में लोग हर तरह की खबरें जानना चाहते हैं, सिर्फ वही नहीं जो सरकारी तंत्र बताना चाहता है। सरकारी अमला अगर इतना भी कर ले जाए कि सरकार के स्तर पर हुए फैसलों की जानकारी लोगों तक पहुंचा दे, तो इसे उसकी सफलता समझा जाना चाहिए। किसी खास मुद्दे को लेकर समाज में कहां क्या घटित हो रहा है, इसके सारे ब्यौरे पता करना और बताना उसके बूते से बाहर है। किसी के आसपास क्या घटनाएं घट रही हैं और उसके रोजमर्रा के जीवन को वे किस तरह प्रभावित करने जा रही हैं, यह पता करना और बताना मीडिया का काम है।
मीडियाकर्मी इसके लिए प्रशिक्षित हैं, उनके पास इसके लिए एक विस्तृत ढांचा है और उनका संस्थान सारी खबरों की पूरी जवाबदेही लेता है। अगर कोई मीडिया संस्थान अपनी खबरों को लेकर अगंभीर है तो उसके खिलाफ कार्रवाई के प्रावधान हैं। इस इतिहास-सिद्ध रास्ते को छोड़कर अगर महामारी से जुड़ी खबरों के लिए सिर्फ सरकारी स्रोतों पर निर्भरता बना दी जाती है तो इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। मसलन यह कि अफवाहों और फेक न्यूज की आपूर्ति के साथ-साथ इसकी मांग भी बढ़ सकती है। ऐसा हुआ तो सच और झूठ का फर्क खत्म हो जाएगा और लेने के देने पड़ जाएंगे। मामले का सैद्धांतिक पक्ष यह है कि सरकार द्वारा किसी संकट को सामने रखकर खबरों को अपने हाथ में ले लेना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। आपात स्थितियों में मीडिया वैसे भी सरकार के साथ समझदारी बनाकर चलता है। इसे जरूरत से ज्यादा खींचना भारत जैसे जनतांत्रिक समाज के लिए अच्छा नहीं है।