23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू को फांसी दी गई। इससे पहले सरदार अर्जुन सिंह, माता, पिता, चाची, भाई सब मिलने आए। उन्होंने मां को कहा, ‘बेबे जी लाश लेने मत आना।’ कहीं आप रो पड़ी तो लोग कहेंगे भगत सिंह की मां रो रही है। फिर उन्होंने एक क्रांतिकारी की जीवनी पढ़ी। सुखदेव, राजगुरू अपनी-अपनी कोठरी से निकल कर आए और तीनों फांसी के तख्ते की ओर बढ़ गए। तीनों गले मिले और फांसी के तख्ते पर चढ़ गए। निर्जीव शरीरों को बोरियों में भरा गया व सतलुज नदी के किनारे मिट्टी का तेल छिडक़ आग लगा दी। अस्थियां नदी में बहा दी। सुबह जनता को इस घटना का पता लगा। वे सतलुज नदी के तट पर पहुंचे, किन्तु कुछ शेष न था। सतलुज की नहरें उठती-गिरती मानों शहीदों की गौरव गाथा गा रही थीं : ’शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले/वतन पे मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा’…
महान क्रांतिकारी देशभक्त भगत सिंह स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को बंगा गांव लायलपुर पंजाब में हुआ। उस समय उनके पिता किशन सिंह और ताऊ व चाचा स्वतंत्रता आन्दोलन मं संलिप्त होने के कारण जेलों में बन्द थे। उसी दिन वे जेल से मुक्त होकर आए। अत: दादी ने बालक का नाम भाग्यवान भगत सिंह रख दिया। दादी का कहना था आज इस भाग्यवान ने इस परिवार को आजाद कराया है, आगे देश को आजाद कराएगा। परिवार आर्य समाजी था, इसलिए वैदिक परिवेश में लालन-पालन व प्रारम्भिक शिक्षा हुई। फिर डी.ए.वी. स्कूल में पढऩे हेतु प्रवेश लिया। एक दिन अपने खिलौने पिस्तौल को आंगन में गाढ़ रहे थे तो यह पूछने पर कि क्या कर रहे हो तो कहा बन्दूक का पेड़ लगा रहा हूं। इस पर जब बहुत सी बन्दूकें आएंगी तो साथियों को बांट दूंगा और अंग्रेजों को भगाकर देश को आजाद कराऊंगा।
सन् 1919 में गांधी जी के आन्दोलन से काफी प्रभावित हुए और जलसों में जाने लगे। 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में नृशंस हत्याएं हुई। 12 साल का बालक अमृतसर जलियांवाला बाग में पहुंच गया। खून से रंगी मु_ी भर मिट्टी शीशी में भरकर घर ले आया, सुरक्षित स्थान पर रख दी और रोज पूजा करने लगा। सन् 1921 में महात्मा गांधी जी द्वारा संचालित असहयोग आन्दोलन में कूद पड़ा। चौरा-चोरी की घटना से प्रभावित होकर पढ़ाई के लिए डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर में प्रवेश ले लिया। लाहौर क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र था। दादी अपने पौत्र का विवाह शीघ्र करना चाहती थी। सगाई की तिथि निश्चित होते ही वह घर से भाग गए।
उनका सम्पर्क चन्द्रशेखर आजाद तथा वाटुकेश्वर दत्त से हुआ। लाहौर नैशनल कॉलेज में उनका सम्पर्क यशपाल, सुखदेव, राजगुरू से हो चुका था। वे कलकत्ता गए और बम बनाने का कार्य करते रहे। वर्ष 1928 में नौजवान भारत सभा का गठन किया। सन् 1928 में साईमन कमीशन भारत आया। उसका सब जगह विरोध हुआ। लाहौर में विरोध का नेतृत्व लाला लाजपत राय ने किया। सांडर्स ने लाठीचार्ज किया। लाला जी घायल हो गए व 17 नवम्बर 1928 को शहीद हो गए। भगत सिंह ने इस मौत का बदला लेने की ठानी। भगत सिंह, राजगुरू, जय गोपाल व चन्द्रशेखर आजाद पुलिस दफ्तर पर पहुंच गए और सांडर्स को आते ही गोलियों से भून दिया। सारे शहर में पुलिस तैनात कर दी गई, भगत सिंह भेष बदल कर अंग्रेज सूट, टाई, सिगार सहित मेम व नौकर के साथ ट्रेन में सवार हो गए और दूर कलकत्ता पहुंच गए।
असैंबली में ट्रेड डिस्प्यूट बिल पास होना था। योजना बनाई कि विरोध किया जाए। 18 अप्रैल, 1929 को असैम्बली में बम फैंका। बाटुकेश्वर दत्त ने भी बम फैंका व दोनों ने ऊपर की ओर गोलियां चलाई और नारा बोला ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ रिवालवर फैंककर स्वयं को गिरफ्तार कराया। पुलिस की गाड़ी में बैठते हुए भी इंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाए। 4 जून, 1929 को अदालत लगी। उन्होंने बयान दिया कि बम फैंकने का उद्देश्य सरकार के कान, आंख खोलना था। किसी को नुकसान पहुंचाने का नहीं। जेल में क्रांतिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता था। अत: भूख हड़ताल की गई। भगत सिंह ने अदालत का बहिष्कार कर दिया। एक पक्षीय फैसला हो गया, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू को फांसी की सजा दी गई। भगत सिंह ने कहा था मेरी यह शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू को फांसी दी गई। इससे पहले सरदार अर्जुन सिंह, माता, पिता, चाची, भाई सब मिलने आए। उन्होंने मां को कहा, ‘बेबे जी लाश लेने मत आना।’ कहीं आप रो पड़ी तो लोग कहेंगे भगत सिंह की मां रो रही है। फिर उन्होंने एक क्रांतिकारी की जीवनी पढ़ी। सुखदेव, राजगुरू अपनी-अपनी कोठरी से निकल कर आए और तीनों फांसी के तख्ते की ओर बढ़ गए। तीनों गले मिले और फांसी के तख्ते पर चढ़ गए। निर्जीव शरीरों को बोरियों में भरा गया व सतलुज नदी के किनारे मिट्टी का तेल छिडक़ आग लगा दी। अस्थियां नदी में बहा दी। सुबह जनता को इस घटना का पता लगा। वे सतलुज नदी के तट पर पहुंचे, किन्तु कुछ शेष न था। सतलुज की नहरें उठती-गिरती मानों शहीदों की गौरव गाथा गा रही थीं : शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले वतन पे मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा। असंख्य लोगों का मानना है कि अगर सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव जैसे क्रांतिकारी देशभक्त न होते, तो अंग्रेज कभी भी भारत को आजाद नहीं करते। क्रांतिकारियों से डरकर ही अंग्रेजों ने भारत को आजाद किया। शहीदी दिवस पर क्रांतिकारियों को पूरा देश नमन करता है।
डा. ओपी शर्मा, शिक्षाविद (दिव्य हिमाचल)