लॉकडाउन में जब शहरों में काम ठप्प हो गया तो करोड़ों प्रवासी मजदूरों ने पैदल ही अपने गांवों का रुख किया. उन्हें आसरा था कि कहीं ना सही तो कम से कम मनरेगा में काम मिल ही जाएगा. राठौड़ मार्च से अपने गांव में हैं जो उत्तर प्रदेश के नवाबगंज जिले में पड़ता है. अब उन्हें मनरेगा में भी ज्यादा काम नहीं मिल रहा है. वह कहते हैं, "पहले अगर काम करने वाले 15 लोग थे तो अब 200 हैं. आठ दिन के काम को एक ही दिन में पूरा कर लिया जा रहा है."
45 साल के राठौड़ कहते हैं, "यह स्कीम गांव में हमारे लिए काम की अकेली उम्मीद थी. मई में मुझे इस स्कीम के तहत 15 दिन काम मिला, लेकिन उसके बाद से कोई काम नहीं है." महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत आवेदन करने वाले 9.8 करोड़ लोगों में से 8.2 करोड़ को अप्रैल से काम मिला है. लेकिन अरबों डॉलर से चलने वाली यह स्कीम भारत के 10 करोड़ प्रवासी मजदूरों में सबकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पा रही है.
सरकार ने पहले ही मनरेगा के आवंटन को बढ़ा दिया है लेकिन अधिकारी कहते हैं कि फंड खत्म होने के कगार पर है. मानव विकास संस्थान में रोजगार अध्ययन केंद्र के निदेशक रवि श्रीवास्तव कहते हैं, "इससे सितंबर तक की मांग को पूरा किया जा सकता है. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है." इस बारे में टिप्पणी के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. लेकिन जिन पांच राज्यों में मनरेगा में काम के लिए सबसे ज्यादा आवेदन आए, वहां के अधिकारियों का कहना है कि लगभग सभी लोगों को काम मुहैया कराया गया है.