जापान की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले आबे शिंजो 2006-07 में और 2012 से लगातार जापान के प्रधानमंत्री रहे हैं. पिछली बार की तरह इस बार भी स्वास्थ्य कारणों से अचानक इस्तीफे ने निर्णय ने तमाम राजनीतिविज्ञों को चौंका दिया है. आबे के नेतृत्व में जापान की विदेश नीति में व्यापक परिवर्तन आए जिनमें भारत के साथ सामरिक और आर्थिक सहयोग, चतुर्देशीय सामरिक सहयोग का क्वाड मसौदा, इंडो-पैसिफिक पर अमेरिका, भारत और आस्ट्रेलिया समेत कई देशों के साथ सहयोग और अमेरिका के निकलने के बावजूद ट्रांस पैसिफिक पार्ट्नरशिप का नेतृत्व प्रमुख रहे.
जापान की विदेश नीति में आयी मुखरता और पैनेपन को आबे की ही देन माना जाना चाहिए. चाहे वह दक्षिण पूर्व एशिया के देशों फिलीपींस, इंडोनेशिया और वियतनाम के साथ बढ़ा सामरिक सहयोग हो या चीन से निपटने के लिए चीन से निकल कर भारत और बांग्लादेश आने वाली जापानी कंपनियों की आर्थिक सहायता, आबे ने मुखर हो कर जापान के विदेश नीति से जुड़े फैसले लिए. मध्य एशिया के देशों के साथ भी जापान ने अपने संबंध सुधारे और साथ ही यासुकुनी श्राइन का बार-बार दौरा कर चीन को छकाया भी. अपने लगभग 8 वर्षों के इस कार्यकाल में आबे ने विदेशी नीति में व्यापक परिवर्तन लाने के साथ जापान के संविधान में संशोधन की भरसक कोशिश की लेकिन पूरी तरह सफल नहीं हुए.
जहां तक देश की अंदरूनी राजनीति का सवाल है तो अपने दूसरे कार्यकाल में आबे ने देश की राजनीति में आए अस्थिरता के माहौल को दूर किया. जापान में राजनीतिक अस्थिरता का क्या आलम है कि बहुत कम नेता है जिन्होंने प्रधानमंत्री के तौर लंबी पारी खेली हो. आबे देश के सबसे लम्बे समय तक प्रधानमंत्री रहे हैं और दूसरे स्थान पर हैं एसाक सातो जिन्होंने 1964-1972 तक प्रधानमंत्री पद संभाला था. कोईजूमी जूनिचिरो ने भी 2001-2006 तक पांच साल लगातार शासन किया.
कोरोना का मुकाबला
इतिहास गवाह है कि लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक स्थिरता उस सूरज के समान होती है जिसके आते ही अक्सर आर्थिक, सामरिक और विदेश नीति के मसले छोटे-मोटे खुद ही सुलझ जाते हैं. जर्मनी की अंगेला मैर्केल हों या रूस के पुतिन, राजनीतिक स्थिरता ने इन दोनों देशों में नीतिगत संगतियों के निर्माण में बड़ा योगदान दिया है. आबे शिंजो के कार्यकाल में जापान ने भी यही मुकाम हासिल किया. भारत में भी गठबंधन सरकारों के काल में आयी अस्थिरता ने देश को खासा नुकसान पहुंचाया था.
अब, जब कि आबे सत्ता के गलियारों से दूर जा रहे हैं - यह सवाल उभर कर सामने आ रहे हैं कि उनके जाने के बाद भी क्या जापान इतना सशक्त रह पाएगा? फिलहाल जापान के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा. कोविड-19 महामारी के बीच संभवतः यह ज्यादा अच्छा होता कि आबे सत्ता में बने रहने के साथ अपनी कुछ जिम्मेदारियां किसी विश्वसनीय को सौंप देते. अनौपचारिक तौर पर एक कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी नियुक्त किया जा सकता था. लेकिन आबे और जापान की राजनीतिक संस्कृति में ऐसा करना आम नहीं है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेजी से बदलत परिदृश्य के बीच अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनावों ने जापान की महत्ता को बहुत बढ़ा दिया है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आबे शिंजो का इस वक्त संन्यास लेना अमेरिका, भारत, और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के लिए अच्छी खबर नहीं है. ऐसा इसलिए है कि भारत, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान की साझा डेमोक्रैटिक सिक्युरिटी डायमंड (जिसे हम क्वाड के नाम से जानते हैं) हो, या इंडो-पैसिफिक की नीति, चीन के बेल्ट एंड रोड के मुकाबले में पार्टनरशिप फॉर क्वालिटी इंवेस्टमेंट और भारत के साथ अफ्रीका में नीतिपरक निवेश के लिए शुरू किया गया एशिया अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर हो, आबे के जापान ने अपनी दूरदर्शी नेतृत्व क्षमता दिखाई है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप, आबे के पास सबके दिलों पर छाने का हुनर था. यही वजह है कि आज शायद दुनिया के दूसरे देश आबे के जाने से ज्यादा दुखी हैं बनिस्पत एक आम जापानी के.
नरेंद्र मोदी और शिंजो आबे
शिंजो आबे के शासनकाल में जापान और भारत के द्विपक्षीय सामरिक संबंधों को बहुत मजबूती मिली. इसका ताजा उदाहरण इसी हफ्ते रक्षा मामलों में आपूर्ति और सेवाओं के पारस्परिक प्रावधान की संधि पर हस्ताक्षर में देखने को मिला. इस समझौते से दोनों देशो की सेनाओं के बीच पारस्परिक सहयोग और जरूरत के समय एक दूसरे के बीच आपूर्ति और सेवाओं का सुगम आदान-प्रदान हो सकेगा. सामरिक क्षेत्रों के अलावा इससे आपदा प्रबंधन और बचाव में भी मदद मिलेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शिंजो आबे को फोन किया और उन्हें भारत जापान संबंधों को मजबूत बनाने के लिए धन्यवाद दिया.
देशों के रिश्ते भी नेताओं के रिश्तों के साथ बनते बिगड़ते या गहन होते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने जापान की नई सरकार के साथ निकट रूप से काम करने का इरादा जताया है. चीन की आक्रामक होती विदेशनीति के बीच भारत और जापान के बीच सहयोग आने वालों में एशिया में राजनीति की दिशा तय करेगा.