नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर उपजी अशांति के बाद केंद्र ने पूर्वोत्तर के चार राज्यों में परिसीमन का फैसला किया है. इसके लिए कानून में संशोधन भी किया जा रहा है. लेकिन इलाके में इस कवायद का विरोध करने वालों का सवाल है कि सीएए से उपजे विवाद को सुलझाए बिना परिसीमन की कवायद बेमतलब है. अभी कई चीजें साफ होनी हैं. उन्होंने सीएए और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) पर उपजे विवाद को सुलझाने के बाद 2021 की जनगणना के आधार पर ही परिसीमन की कवायद शुरू करने की मांग उठाई है.
भारत में लोकसभा और विधानसभा की सामओं को नए सिरे से परिभाषित करने के लिए विभिन्न राज्यों में जनगणना के आंकड़ों के आधार पर परीसमन की कवायद होती रही है. इसका मकसद दस साल के दौरान आबादी के अनुपात में होने वाले बदलावों को प्रतिनिधित्व देना है. इसी लिहाज से चुनाव क्षेत्र की सीमाओं को नए सिरे से तय करने के साथ ही आरक्षित सीटों में भी फेरबदल किया जाता है. इसका प्रमुख मकसद यह सुनिश्चित करना है कि आबादी के अनुपात में बदलाव से कुछ खास राजनीतिक दल को फायदा नहीं मिल सके यानी सबको समान मौके मिलें. अक्सर परिसीमन की वजह से लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या भी बढ़ जाती है. ताजा परिसीमन में इसकी कोई संभावना नहीं है. इसकी वजह यह है कि परिसीमन कानून में संशोधन के जरिए सीटों की तादाद में वृद्धि पर 2026 तक रोक लगा दी गई है. परिसीमन आयोग के फैसलों को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती.
देश में परिसीमन की कवायद सबसे पहले 1950-51 में हुई थी. तब चुनाव आयोग की सहायता से ऐसा किया गया था. लेकिन 1952 में परिसीमन आयोग अधिनियम बनने के बाद 1952, 1963, 1973 और 2002 में गठित परिसीमन आयोगों के जरिए यह कवायद की गई. 1981 और 1991 की जनगणना के बाद परिसीमन का काम नहीं किया गया था. इसकी वजह तमाम राज्यों में आबादी और लोकसभा सीटों का अनुपात लगभग समान होना था. अधिनियम में इसका प्रावधान है. लेकिन इसका एक मतलब यह भी हुआ कि आबादी नियंत्रण पर ध्यान नहीं देने वाले राज्यों में लोकसभा की सीटें बढ़ने की संभावना थी.
इसके उलट परिवार नियोजन को बढ़ावा देने वाले दक्षिण भारतीय राज्यों को संसद में कम सीटें मिलतीं. इन चिंताओं को ध्यान में रखते हुए परिसीमन को 2001 तक स्थगित रखने के लिए 1976 में संविधान में संशोधन किया गया था. इसके साथ ही एक अन्य संशोधन के जरिए 2026 तक सीटों की तादाद बढ़ाने पर भी रोक लगा दी गई. उस समय तक देश के तमाम राज्यों में आबादी में वृद्धि दर समान होने का अनुमान लगाया गया था. इसी वजह से आखिरी बार 2001 के जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 2002 से 2008 के बीच परिसीमन की कवायद चली थी. उस दौरान चुनाव क्षेत्रों की सीमाएं बदलीं और आरक्षित सीटों में बदलाव किए गए थे.