ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका कंपनी भारत के सीरम इंस्टीट्यूट के साथ मिलकर वैक्सीन तैयार कर रही हैं। भारत में यह वैक्सीन कोविशील्ड के नाम से लॉन्च होगी। पुणे में आज से इसके फेज-2 का हृयूमन ट्रायल शुरू हो गया। दोपहर 1 बजे भारती विद्यापीठ मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में 5 लोगों को इसकी पहली डोज दी गई। इन्हें अगले दो महीने तक मेडिकल ऑब्जर्वेशन में रखा जाएगा। अगर रिजल्ट अच्छे रहे तो 300 से 350 लोगों यह वैक्सीन दी जाएगी। ट्रायल सफल होता है तो दिसंबर तक वैक्सीन मिलने की उम्मीद है।
पुणे स्थित भारती विद्यापीठ के मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के चिकित्सा निदेशक डॉ. संजय लालवानी ने बताया कि हमने ट्रायल के लिए 6 व्यक्तियों का चुना है। इन लोगों की स्क्रीनिंग प्रक्रिया खत्म हो गई। आरटी-पीसीआर और एंटीबॉडी परीक्षण किए गए हैं। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने देश में वैक्सीन की 1 बिलियन डोज का उत्पादन करने के लिए ब्रिटिश-स्वीडिश दवा फर्म एस्ट्राजेनेका के साथ समझौता किया है।
अब तक वैक्सीन सुरक्षित साबित हुई
मेडिकल जर्नल द लैंसेट में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, यह वैक्सीन पूरी तरह सुरक्षित और असरदार है। इस जानकारी के बाद ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन फ्रंट रनर वैक्सीन की लिस्ट में आगे आ गई है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने भी कहा है कि कोविशील्ड नाम की इस वैक्सीन को लगाने से अच्छा रिस्पॉन्स मिला है।
थर्ड फेज को भी मिली है मंजूरी
3 अगस्त को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने देश में सेकंड और थर्ड फेज हृयूमन ट्रायल के लिए सीरम संस्थान को इजाजत दी है। क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री-इंडिया के मुताबिक, कोविशिल्ड की खुराक ट्रायल में शामिल दो लोगों को दी जाएगी।
73 दिनों के दावे को इंस्टीट्यूट ने गलत कहा
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा कहा गया कि 73 दिनों के अंदर कोविशील्ड वैक्सीन बाजार में आ जाएगी और भारतीयों का फ्री में वैक्सीनेशन होगा। सीरम इंस्टीट्यूट ने इस पर सफाई दी कि कोविशील्ड को ट्रायल्स में कामयाब होने के बाद ही बाजार में उतारा जाएगा।
एक्सपर्ट ने बताया कि वैक्सीन को किन चरणों से गुजरना होता है
वैक्सीन को निर्माण से पहले कई चरणों से गुजरना पड़ता है। देश के पूर्व ड्रग कंट्रोलर जनरल जीएन सिंह ने बताया कि वैक्सीन हम तक कैसे पहुंचती है, वैक्सीन बनाने से पहले क्या प्रोसेस अपनाई जाती है।
वायरस की जांच-पड़ताल
:पहले शोधकर्ता पता करते हैं कि वायरस कोशिकाओं को कैसे प्रभावित करता है। प्रोटीन की संरचना से देखते हैं कि क्या इम्यून सिस्टम बढ़ाने के लिए उसी वायरस का इस्तेमाल हो सकता है। फिर उस एंटीजन को पहचानते हैं, जो एंटीबॉडीज बनाकर इम्यूनिटी बढ़ा सकता है।
प्री-क्लिनिकल डेवलपमेंट
मनुष्यों पर परीक्षण से पहले यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि कोई टीका या दवा कितनी सुरक्षित है और कारगर है। इसीलिए सबसे पहले जानवरों पर परीक्षण किया जाता है। इसमें सफलता के बाद आगे का काम शुरू होता है, जिसे फेज-1 सेफ्टी ट्रायल्स कहते हैं।