बाघ या बड़ी बिल्ली परिवार का कोई भी सदस्य भरे-पूरे वन्यजीव संसार का संकेतक या मापक और स्वस्थ-संतुलित पर्यावरण का प्रतीक होता है, इसलिए इस अति महत्वपूर्ण जीव के विलुप्ति के कगार तक पहुंच जाने से चिंतित बाघों की मौजूदगी वाले 13 देशों ने सेंट पीटर्सबर्ग में 2010 में 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी कर 6 हजार तक पहुंचाने का संकल्प लिया था।
हर्ष का विषय है कि भारत ने इस संकल्प को लक्ष्य वर्ष से काफी पहले ही हासिल कर लिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम बड़ी संख्या में शिकारियों के हाथों बाघों की मौतों से आखें मूंद ले। हर साल एक -एक बाघ पर करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी पिछले लगभग एक दशक में देश में प्रतिवर्ष बाघों की मौतों का औसत 94 रहा, जिनमें से 40 प्रतिशत मौतें केवल शिकारियों के हाथों हुई हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गत वर्ष जारी बाघ गणना के परिणामों के अनुसार भारत में बाघों की संख्या 2,967 हो गयी है, जबकि 2008 की गणना में 1,411, वर्ष 2010 में 1,706 और 2014 की गणना में बाघों की संख्या 2,226, मानी गयी थी।
इन वर्षों में बाघों की संख्या में लगभग 6 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन इस अच्छी खबर के साथ ही बुरी खबर यह है कि 2012 से लेकर 2019 के बीच देश में 750 बाघों की मौत हुई है और इनमें से 168 की मौत शिकारियों के हाथों हुई, जबकि 70 मौतों का पता लगाना बाकी था। इनके अलावा 369 मौतें दुर्घटना, आपसी लड़ाई, अधिक उम्र और भूख आदि प्राकृतिक कारणों से हुई है।
संसार का सबसे बड़ा सत्य मृत्यु है और बाघों का या किसी भी जीव का स्वाभाविक मौत मरना भी जरूरी ही है। अगर बाघ की असंतुलित वृद्धि हो जायेगी तो वह मांसाहारियों की नस्लें ही समाप्त कर देगा जिससे आहार श्रृंखला टूटने के साथ ही पादप जगत भी असंतुलित हो जाएगाा। वैसे भी अकेले बाघ या मांसाहरी का अस्तित्व संभव नहीं है।