कलकत्ता डायरी
सन 1725 में कोरोमंडल, तमिलनाडु के फोर्ट सेंट डेविड के ब्रिटिश गवर्नर एडवर्ड क्रूक और उनकी पुर्तगाली पत्नी इसाबेला बैज़ोर के घर जन्मी फ्रांसिस जॉनसन ने बंगाल के आधुनिक इतिहास को बनते हुए देखा और जीवन का बेहद लम्बा वक्फा कलकत्ता में गुजारा. बहुत छोटी उम्र में उसने कलकत्ता के गवर्नर के भतीजे से शादी कर ली जिससे दो बच्चे हुए लेकिन शादी के दो वर्ष के भीतर उसके पति और बच्चों की मौत हो गयी. उसके कुछ समय बाद उसने दूसरी शादी की लेकिन शादी के पन्द्रह दिन बाद इस दूसरे पति का भी स्वर्गवास हो गया.
दो साल बाद उसने तीसरी बार शादी की. उस समय उसकी उम्र थी चौबीस. तीसरा पति ईस्ट इण्डिया कंपनी में बड़ा अधिकारी था. इस सम्बन्ध के शुरुआती साल सुखपूर्ण थे लेकिन उसके बाद बंगाल में नवाब सिराजुद्दौला के दादा अलीवर्दी खान के इंतकाल के बाद राजनैतिक उथलपुथल शुरू हो गयी. घटनाक्रम कुछ ऐसा रहा कि फ्रांसिस को अपने पति से अलग कर बच्चों समेत नजरबन्द कर दिया गया. मरहूम अलीवर्दी खान की बेवा को फ्रांसिस भा गयी और उन्होंने उसे और उसके दो बच्चों को सुरक्षित चन्दननगर पहुंचा दिया. इन्हीं मोहतरमा की कृपा से इस अंग्रेज औरत को बेगम जॉनसन कहा जाने लगा.
प्लासी की लड़ाई के अगले साल यानी 1758 में फ्रांसिस के पति को युद्ध में उसकी सेवाओं के एवज में मालामाल कर दिया गया और कुछ समय के लिए फोर्ट विलियम का गवर्नर भी बनाया गया लेकिन उसने वापस इंग्लैण्ड लौटने का फैसला किया. इंग्लैण्ड में 1764 के साल फ्रांसिस के तीसरे पति भी भगवान के प्यारे हो गए. फ्रांसिस ने अगले पांच साल तक वहीं एक विधवा का जीवन बिताया लेकिन 1769 में भारत लौटने का फैसला किया.
यह एक असाधारण निर्णय था. उस ज़माने में आम प्रचालन यह था कि अंग्रेज अपनी किशोरावस्था में यहाँ आ जाते थे, खूब पैसे कमाते थे, भारतीय स्त्रियों से शादी कर लेते थे और कमोबेश भारतीय जीवनशैली अपना लिया करते थे. लेकिन चालीस पार की एक अंग्रेज औरत के लिए भारत में करने को कुछ भी नहीं था – न परिवार, न नौकरी. अंग्रेज मेमसाहबों ने तो उसके सौ बरस बाद भारत आना शुरू किया जब स्वेज़ नहर बन गयी थी.
यह पक्का मालूम नहीं की वह अपने बच्चों को अपने साथ लाई या नहीं लेकिन यह तय है कि जीवन के शुरुआती 33 साल भारत में गुज़ार चुकी यह दिलेर औरत अपने आपको इंग्लैण्ड में मिसफिट समझती थी. उसे भारत की याद आती थी और वह भारत आने वाले जहाज पर बैठ गयी. तीन माह बाद वह फिर से कलकत्ता में थी. पैसों की कमी नहीं थी सो उसने एक बड़ा सा बंगला खरीदा और तमाम नौकरों चाकरों के साथ रहने लगी.
1774 में उसने विलियम जॉनसन नाम के एक पादरी से ब्याह रचाया. विलियम जॉनसन ने कलकत्ता के पहले एंग्लिकन चर्च सेंट जॉन्स के निर्माण का बीड़ा उठा लिया. लम्बी मेहनत के बाद उसकी इमारत 1787 में बन कर तैयार हुई. फ्रांसिस को उम्मीद थी कि विलियम जॉनसन इस उपलब्धि के बाद भारत में रहेगा लेकिन अगले ही साल उसने भी वापस इंग्लैण्ड जाने का फैसला किया. बेगम जॉनसन का रास्ता फिर से अलग हो गया. उसने भारत में ही रहना तय किया.
3 फरवरी 1812 को सत्तासी साल की आयु में हुई अपनी मृत्यु तक बेगम जॉनसन कलकत्ता में अकेली रही – किसी हिन्दुस्तानी बेगम की तरह. उसने अपनी वसीयत में अपने आख़िरी पति का नाम जरूर दर्ज किया अलबत्ता उसके नाम एक कौड़ी भी नहीं छोड़ी.
उल्लेखनीय है कि उसी साल उसका पोता रॉबर्ट जेन्किन्सन इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बना और अगले 15 साल तक उसी पद पर रहा.
मौत के बाद बेगम जॉनसन को, जिसे बेबी जॉनसन के नाम से भी जाना गया, सेंट जॉन्स चर्च में दफनाया गया. शवयात्रा में गवर्नर जनरल, कौंसिल-मेम्बरान, अनेक न्यायाधीश और अनेक संभ्रांत लोग शामिल हुए.
कलकत्ते के इसी मशहूर और तारीखी सेंट जॉन्स चर्च के परिसर के आखीर में बेगम जॉनसन को कलकत्ते की बुनियाद रखने वाले जाब चार्नक की कब्र के समीप दफनाया गया. उसकी याद में लगाये गए पत्थर पर उसकी तमाम शादियों का ज़िक्र है. पत्थर यह भी कहता है कि बंगाल की इस सबसे पुरानी अंग्रेज निवासिनी को हर जगह लोगों का प्रेम और सम्मान हासिल हुआ.